Monday, September 18, 2017

आवारा - Vagabond

  • जीवन के बेहद
  • सुखद अनुभवों
    में शामिल है
    मुट्ठी खोल देना
    हाथ छोड़ देना
    बेघर हो जाना
    अपना लिखा
    मिटा देना

    मुड़ जाना 
    किसी भी गली में
    रुक जाना
    किसी भी मोड़ पे

    हर शहर अपना है
    और
    हर घर पराया

    हर रास्ता 
    हर गली 
    हर मोड़ 
    वहीं जाता है

    जहाँ जाना है
    कहीं भी
    या
    कहीं भी नहीं।

Saturday, August 12, 2017

इस सदी की सबसे दुखद घटना - १२ अगस्त २०१७

1947 में बटवारे के वक़्त
लाखों मारे गए
करोड़ों बेघर हुए
शामिल थे मेरे पूर्वज
रो देती थी दादी 
सुनाते हुए वो वाक्या
मैं बचपन में ही 
बड़ा हो गया था

इतिहास में दर्ज़ है
हिटलर के जुल्मों का 
हिसाब 
जो दहला देता है
कठोर से कठोर हृदय को
कहानियां उन दिनों की
आज भी कंपा देती है
भीतर से

अमेरिका के लिटल बॉय
ने एक क्षण में कई लाख
लोग पिघला के हवा कर दिए
हिरोशिमा में
इससे डरावना भी कुछ
हो सकता है क्या?

भोपाल ट्रेजडी
1984
गुजरात
फिलिस्तीन
सीरिया 
इराक
अफगानिस्तान
पिताजी का निधन 

हर मौके पे
आंखों का बस 
नम होते होते रह जाना

कितना दूर हूँ यथार्थ से

इस सदी की सबसे दुखद घटना, 
जिसने बदल कर 
रख दिया जीवन
इस सदी की उस सबसे दुखद
घटना में कोई नही मरा
न चोट लगी किसी शरीर को

बस एक चुप्पी
जो बरसों तक गूंजती रही।

Monday, August 07, 2017

प्रेम की गलियां - ७ अगस्त २०१७

टूटा जा सकता है
गिरा जा सकता है
उठा जा सकता है
मिटा जा सकता है
जिया जा सकता है
मरा जा सकता है
जीता जा सकता है
और 
हारा भी जा सकता है

पर हार मान नही सकते
लौट कर जा नही सकते,

ये इश्क़ है मियां
कोई जंग थोड़ी न है।

Thursday, July 27, 2017

और फिर अंत में प्रतीक्षा

और फिर शब्द 
हर कहानी
हर गीत 
हर रोज़ 
हर बात
बस एक सवाल 
क्यूँ?

दिन पर दिन 
रात पर रात 
साल पर साल 
किसलिए?

और फ़िर प्रेम 
न दुनिया 
न जवाब 
न कहानी 
न सवाल 
बस तुम 

दिन पर दिन 
रात पर रात 
साल पर साल 
कब तक? 

फिर सन्नाटा 
हल्का अँधेरा 
न प्रेम 
न सवाल 
न तुम 
न जवाब  
सिर्फ मैं 

दिन पर दिन 
रात पर रात 
साल पर साल 
कैसे?

और फ़िर?

और फिर 
एक हल्की मुस्कान 
धुंधले चेहरे 
यात्रा, चलना 
दौड़ना, थकना
गिरना, उठना 
 
दिन पर दिन 
रात पर रात 
साल पर साल 

और फिर अंत में प्रतीक्षा 




Wednesday, July 26, 2017

सैम के लिए - १३ जुलाई २०१७

सपनों की गलियों में
समय बिताना बेहद
पसन्द है मुझे

पसंद हैं मुझे
सपनोँ की गलियां
इन मंदिरों, मस्जिदों 
गिरजाघरों से भी ज़्यादा

वहां घूमना 
किसी कल्पवृक्ष के तले
बैठने जैसा सुखद है


बस डर लगता है
वहां से लौट कर आने में

यथार्थ कितना क्रूर है ना
बड़ी बड़ी भौहें
बिखरे बाल, 
डरावना से चेहरा
जैसे जन्मा है तो सिर्फ
मुझे डराने के लिए 

वो कुछ नही कहता
बस सामने
बैठा रहता है
चुपचाप।
उसकी साँसों में 
सुनती है
घड़ी की टिक टिक।

और जब
 उससे मिलके
विचलित होता है मन
मैं ढूंढता हूँ
साहस उसके सामने बैठने का
कभी गीता, वेद कुरानों में 
तो कभी वीर रस की कविताओं में

और जब असहनीय 
हो जाता है
यथार्थ की आंखों में 
चुपचाप देखना

तब याद करता हूँ
सैम के शब्द
"और फिर अंत में बाघ आएगा
और सबको खा जाएगा"

फिर मैं और यथार्थ
घंटों, दिनों, सदियों तक
एक दूसरे को चुपचाप
घूरते रहते हैं।

तुम्हारे लिए - ७ जुलाई २०१७

पहाड़ों से 
निकली है नदी
जा रही हैं 
तुम्हारी तरफ

पेड़ छूने के लिए तुम्हे 
बढ़ रहेे हैं
आसमान की और
पर छू न पाएंगे

तुम्हारे न मिलने 
की वजह से
चाँद लगातार 
लगा रहा है चक्कर 
धरती के
और 
धरती सूरज के

हवा दौड़ती रहती है
एक कोने से 
दूसरे कोने तक

दिन और रात 
लगातार
भाग रहे हैं
जाने किसके पीछे

तारे, आसमान,
चाँद, पानी
बिजली, सागर
सूरज, पृथ्वी
सब पगला गए हैं

और मैं 

मैं थक के
बैठ गया हूँ
एक जगह
चुपचाप

बताओ ज़रा
कब मिलोगे।

Sunday, January 22, 2017

बदनाम ~ २२ जनवरी २०१७

कितना मुश्किल होता है, 

बनाना एक घोंसला, 

ससे भी मुश्किल होता है, 

उसमे घर बसाना

और फिर देना उसमे अंडे।

बेहद मुश्किल होता होगा
उसी घोंसले को बारिश में
हिलते और फिर टूटते देखना।

कितनी अजीब बात है
मुझे पसंद है वो एक चिड़िया
जिसने अपने घोंसले को
खुद ही पेड़ से गिरा दिया
और उड़ गयी दूर आकाश में....

Wednesday, January 18, 2017

खो जाना - १८ जनवरी २०१७

किसी ने कभी बताया ही नहीं 
कहाँ पहुचना था 
मगर अक्सर ये सुना 
कहीं नहीं पहुँचे तुम 
अब सबको देर तक 
चुपचाप देखता हूँ 
और सोचता हूँ 
कौन कहाँ पहुँचा 
जिसे देखकर कहूँ 
हाँ यहाँ पहुँचना था 

Friday, January 13, 2017

घूम रहा चरखा रे जोगिया, घूम रहा चरखा

तुम समझते नहीं हो वो बातें और मैं समझा भी नहीं पाता। कुछ है भीतर जो आराम से बैठने नहीं देता। जो एक अलग सी दिशा में चलने को मजबूर कर देता है। शायद तुम्हारे साथ ना होता हो। 

पूरा जीवन, सम्पूर्ण संसार, कुछ भी पाने की चाह एक जाल की तरह दिखती है। ऐसा पूरे समय चलता रहता है, कि कुछ है जो दिखाई नहीं दे रहा मगर है। एक ऐसी जगह जहाँ पहुचना है, और वो शायद बाहर नहीं, मेरे भीतर ही है।  

एक एवरेस्ट जिस पे चढ़ के बैठ जाऊंगा तो दूर दूर तक सब साफ़ साफ़ दिखने लगेगा।  वहाँ से मैं मन में उठने वाले हर विचार, हर बेचैनी को पहले, उठने से बहुत पहले ही देख लूँगा। 

शायद ये भी एक सपना ही हो, और सच में ऐसा कहीं कोई एवेरेस्ट हो ही न। अगर कोई कहता भी है, कि है तो  भरोसा क्या। 

लेकिन इतना तो समझो कि ये मैदान मुझे रोक नहीं पा रहे। मैं दौड़ रहा हूँ, उस पहाड़ पे चढ़ने को जो मुझे पता नहीं है भी या नहीं। 

मगर ये विचार मेरे मन में आया कहाँ से, मुझे समझ नहीं आता। किसी के भी मन में विचार कहाँ से आते हैं। पता नहीं पर आ गया और अब ये विचार मुझे दौड़ाये हुए है। 

Thursday, January 12, 2017

आज की बात - १२ जनवरी २०१७


बहुत सालों पहले एक आदमी से मुलाकात ने अंदर  हिला दिया था, आज उसका जन्मदिन है। उसका नाम और जिक्र जाने कहाँ कहाँ से उठके साथ चला आता है।  

मैं लिखना नहीं चाहता लेकिन प्याला काफी भर चूका है, इसे कहीं उड़ेलना ज़रूरी है। 

ये जीवन सिवाय एक खोज के कुछ नहीं और क्या खोज रहा हूँ उसकी भी कुछ बहुत ज़्यादा खबर नहीं। कभी कभी हैरानी होती है पीछे मुड़ के देखने पे, कितने मोड़, कैसी राहें और हर बार जब चुनने के बात आई, क्या सोच के जाने मैंने ये मुश्किल राहें चुनी। हैरान होता हूँ खुद से ही। 

सुना है बहुत लोग गुज़रे हैं इन्ही गलियों से जहाँ मैं भटक रहा हूँ। काफी कहानियां है जो लोगों के मंज़िल तक पहुचने के किस्से बयान करती हैं। मगर कितने होंगे जो घबरा के लौटे भी होंगे। कितने होंगे जो यही थक के बैठ भी गए होंगे।  

पहाड़ चढ़ने जैसा है ये। 

और शायद इसीलिए पहाड़ चढ़ने वाले बहुत पसंद आते रहे हैं. मगर उन्हें कम से कम दीखता तो है। 
और अपने को। .... 

कभी कभी ठहाके लगाने का दिल करता है सोच के क्या खेल चल रहा है जीवन में। 

अब प्याला उड़ेलने की शुरुआत हुई है।  देखते हैं क्या क्या निकलता है।