Sunday, January 22, 2017

बदनाम ~ २२ जनवरी २०१७

कितना मुश्किल होता है, 

बनाना एक घोंसला, 

ससे भी मुश्किल होता है, 

उसमे घर बसाना

और फिर देना उसमे अंडे।

बेहद मुश्किल होता होगा
उसी घोंसले को बारिश में
हिलते और फिर टूटते देखना।

कितनी अजीब बात है
मुझे पसंद है वो एक चिड़िया
जिसने अपने घोंसले को
खुद ही पेड़ से गिरा दिया
और उड़ गयी दूर आकाश में....

Wednesday, January 18, 2017

खो जाना - १८ जनवरी २०१७

किसी ने कभी बताया ही नहीं 
कहाँ पहुचना था 
मगर अक्सर ये सुना 
कहीं नहीं पहुँचे तुम 
अब सबको देर तक 
चुपचाप देखता हूँ 
और सोचता हूँ 
कौन कहाँ पहुँचा 
जिसे देखकर कहूँ 
हाँ यहाँ पहुँचना था 

Friday, January 13, 2017

घूम रहा चरखा रे जोगिया, घूम रहा चरखा

तुम समझते नहीं हो वो बातें और मैं समझा भी नहीं पाता। कुछ है भीतर जो आराम से बैठने नहीं देता। जो एक अलग सी दिशा में चलने को मजबूर कर देता है। शायद तुम्हारे साथ ना होता हो। 

पूरा जीवन, सम्पूर्ण संसार, कुछ भी पाने की चाह एक जाल की तरह दिखती है। ऐसा पूरे समय चलता रहता है, कि कुछ है जो दिखाई नहीं दे रहा मगर है। एक ऐसी जगह जहाँ पहुचना है, और वो शायद बाहर नहीं, मेरे भीतर ही है।  

एक एवरेस्ट जिस पे चढ़ के बैठ जाऊंगा तो दूर दूर तक सब साफ़ साफ़ दिखने लगेगा।  वहाँ से मैं मन में उठने वाले हर विचार, हर बेचैनी को पहले, उठने से बहुत पहले ही देख लूँगा। 

शायद ये भी एक सपना ही हो, और सच में ऐसा कहीं कोई एवेरेस्ट हो ही न। अगर कोई कहता भी है, कि है तो  भरोसा क्या। 

लेकिन इतना तो समझो कि ये मैदान मुझे रोक नहीं पा रहे। मैं दौड़ रहा हूँ, उस पहाड़ पे चढ़ने को जो मुझे पता नहीं है भी या नहीं। 

मगर ये विचार मेरे मन में आया कहाँ से, मुझे समझ नहीं आता। किसी के भी मन में विचार कहाँ से आते हैं। पता नहीं पर आ गया और अब ये विचार मुझे दौड़ाये हुए है। 

Thursday, January 12, 2017

आज की बात - १२ जनवरी २०१७


बहुत सालों पहले एक आदमी से मुलाकात ने अंदर  हिला दिया था, आज उसका जन्मदिन है। उसका नाम और जिक्र जाने कहाँ कहाँ से उठके साथ चला आता है।  

मैं लिखना नहीं चाहता लेकिन प्याला काफी भर चूका है, इसे कहीं उड़ेलना ज़रूरी है। 

ये जीवन सिवाय एक खोज के कुछ नहीं और क्या खोज रहा हूँ उसकी भी कुछ बहुत ज़्यादा खबर नहीं। कभी कभी हैरानी होती है पीछे मुड़ के देखने पे, कितने मोड़, कैसी राहें और हर बार जब चुनने के बात आई, क्या सोच के जाने मैंने ये मुश्किल राहें चुनी। हैरान होता हूँ खुद से ही। 

सुना है बहुत लोग गुज़रे हैं इन्ही गलियों से जहाँ मैं भटक रहा हूँ। काफी कहानियां है जो लोगों के मंज़िल तक पहुचने के किस्से बयान करती हैं। मगर कितने होंगे जो घबरा के लौटे भी होंगे। कितने होंगे जो यही थक के बैठ भी गए होंगे।  

पहाड़ चढ़ने जैसा है ये। 

और शायद इसीलिए पहाड़ चढ़ने वाले बहुत पसंद आते रहे हैं. मगर उन्हें कम से कम दीखता तो है। 
और अपने को। .... 

कभी कभी ठहाके लगाने का दिल करता है सोच के क्या खेल चल रहा है जीवन में। 

अब प्याला उड़ेलने की शुरुआत हुई है।  देखते हैं क्या क्या निकलता है।