बहुत सालों पहले एक आदमी से मुलाकात ने अंदर हिला दिया था, आज उसका जन्मदिन है। उसका नाम और जिक्र जाने कहाँ कहाँ से उठके साथ चला आता है।
मैं लिखना नहीं चाहता लेकिन प्याला काफी भर चूका है, इसे कहीं उड़ेलना ज़रूरी है।
ये जीवन सिवाय एक खोज के कुछ नहीं और क्या खोज रहा हूँ उसकी भी कुछ बहुत ज़्यादा खबर नहीं। कभी कभी हैरानी होती है पीछे मुड़ के देखने पे, कितने मोड़, कैसी राहें और हर बार जब चुनने के बात आई, क्या सोच के जाने मैंने ये मुश्किल राहें चुनी। हैरान होता हूँ खुद से ही।
सुना है बहुत लोग गुज़रे हैं इन्ही गलियों से जहाँ मैं भटक रहा हूँ। काफी कहानियां है जो लोगों के मंज़िल तक पहुचने के किस्से बयान करती हैं। मगर कितने होंगे जो घबरा के लौटे भी होंगे। कितने होंगे जो यही थक के बैठ भी गए होंगे।
पहाड़ चढ़ने जैसा है ये।
और शायद इसीलिए पहाड़ चढ़ने वाले बहुत पसंद आते रहे हैं. मगर उन्हें कम से कम दीखता तो है।
और अपने को। ....
कभी कभी ठहाके लगाने का दिल करता है सोच के क्या खेल चल रहा है जीवन में।
अब प्याला उड़ेलने की शुरुआत हुई है। देखते हैं क्या क्या निकलता है।
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