Wednesday, July 26, 2017

सैम के लिए - १३ जुलाई २०१७

सपनों की गलियों में
समय बिताना बेहद
पसन्द है मुझे

पसंद हैं मुझे
सपनोँ की गलियां
इन मंदिरों, मस्जिदों 
गिरजाघरों से भी ज़्यादा

वहां घूमना 
किसी कल्पवृक्ष के तले
बैठने जैसा सुखद है


बस डर लगता है
वहां से लौट कर आने में

यथार्थ कितना क्रूर है ना
बड़ी बड़ी भौहें
बिखरे बाल, 
डरावना से चेहरा
जैसे जन्मा है तो सिर्फ
मुझे डराने के लिए 

वो कुछ नही कहता
बस सामने
बैठा रहता है
चुपचाप।
उसकी साँसों में 
सुनती है
घड़ी की टिक टिक।

और जब
 उससे मिलके
विचलित होता है मन
मैं ढूंढता हूँ
साहस उसके सामने बैठने का
कभी गीता, वेद कुरानों में 
तो कभी वीर रस की कविताओं में

और जब असहनीय 
हो जाता है
यथार्थ की आंखों में 
चुपचाप देखना

तब याद करता हूँ
सैम के शब्द
"और फिर अंत में बाघ आएगा
और सबको खा जाएगा"

फिर मैं और यथार्थ
घंटों, दिनों, सदियों तक
एक दूसरे को चुपचाप
घूरते रहते हैं।

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