Friday, January 13, 2017

घूम रहा चरखा रे जोगिया, घूम रहा चरखा

तुम समझते नहीं हो वो बातें और मैं समझा भी नहीं पाता। कुछ है भीतर जो आराम से बैठने नहीं देता। जो एक अलग सी दिशा में चलने को मजबूर कर देता है। शायद तुम्हारे साथ ना होता हो। 

पूरा जीवन, सम्पूर्ण संसार, कुछ भी पाने की चाह एक जाल की तरह दिखती है। ऐसा पूरे समय चलता रहता है, कि कुछ है जो दिखाई नहीं दे रहा मगर है। एक ऐसी जगह जहाँ पहुचना है, और वो शायद बाहर नहीं, मेरे भीतर ही है।  

एक एवरेस्ट जिस पे चढ़ के बैठ जाऊंगा तो दूर दूर तक सब साफ़ साफ़ दिखने लगेगा।  वहाँ से मैं मन में उठने वाले हर विचार, हर बेचैनी को पहले, उठने से बहुत पहले ही देख लूँगा। 

शायद ये भी एक सपना ही हो, और सच में ऐसा कहीं कोई एवेरेस्ट हो ही न। अगर कोई कहता भी है, कि है तो  भरोसा क्या। 

लेकिन इतना तो समझो कि ये मैदान मुझे रोक नहीं पा रहे। मैं दौड़ रहा हूँ, उस पहाड़ पे चढ़ने को जो मुझे पता नहीं है भी या नहीं। 

मगर ये विचार मेरे मन में आया कहाँ से, मुझे समझ नहीं आता। किसी के भी मन में विचार कहाँ से आते हैं। पता नहीं पर आ गया और अब ये विचार मुझे दौड़ाये हुए है। 

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